*होलिका दहन निर्णय मीमांसा*

. *होलिका दहन निर्णय मीमांसा*

*पं. कौशल दत्त शर्मा*
*नीमकाथाना राजस्थान*
*9414467988*
*19 फरवरी 2023*

*जनता जनार्दन हितार्थ होलिका दहन भद्रापुच्छ में रात्रि 12.48 से 02.00 बजे तक ही श्रेयस्कर है।*

*06 मार्च 2023 हुताशनी पूर्णिमा को ढुण्डा राक्षसी की पूजा कर भद्रा के अशुभ समय को छोड़ते हुए मध्यरात्रि भद्रापुच्छ काल (72 मिनट) में होलिका दहन करना सर्वविध सर्वत्र श्रेयस्कर होगा। इस वर्ष फाल्गुनी पूर्णिमा अपराह्न 4.18 से प्रारम्भ हो रही है। इसी के साथ भद्रा भी प्रारम्भ होगी जो सायाह्न प्रदोषकाल (सूर्यास्त से लगभग 144 मिनट तक का समयमान) को स्पर्श करती हुई सुबह 5.15 बजे तक व्याप्त रहेगी। भद्रापुच्छ को छोड़कर शेष भद्रा में होलिका दहन महा अशुभ कहा गया है। अतः होलिका दहन प्राणिमात्र के लिए हितकर हो ऐसा चिन्तन कर विद्वज्जनों को अशुभ भद्राकाल में होलिका दहन नहीं करना चाहिए।*
पुरुषार्थ चिन्तामणि (पृष्ठ 309) में भविष्यत् पुराण का वचन ढुंढा के लिए कहा गया है –
*ढुंढा नामेति विख्याता राक्षसी मालिन: सुता।*
*तथा चाराधित: शंभुरुग्रेण तपसा पुरा।।*
और कहते हैं कि वही ढुंढा राक्षसी भगवान के कृपा प्रसाद से होलिका नाम से प्रसिद्ध हुई।-
*तत: प्रभृति लोकेऽस्मिन् होलिका ख्यातिमागता।*
*सर्वदुष्टापहो होम: सर्वरोगोपशान्तिद:।।…*
*क्रियतेऽस्यां द्विजै: पार्थ तेन सा होलिका स्मृता।।…*
और कहते हैं कि सब मिलकर होली जलावें पर भद्रामुख में तो कभी नहीं जलावें-
*अपत्यैर्वाथ वृद्धैर्वा युवभिर्वा दिनात्यये*
*प्राप्तायां पूर्णिमायां तु कुर्यात्तत्काष्ठदीपनम्।।*
*चाण्डालसूतिकागेहात् शिशुहारितवह्निना।*
*भद्रामुखं परित्यज्य होलाया: दीपनं शुभम्।।*
पुराणसमुच्चय पृष्ठ 310 में भद्रा में होलिका दहन निषेध किया है-
*भद्रायां दीपिता होली राज्यभंगं करोति वै।*
*नगरस्य च नैवेष्टा तस्मात्तां परिवर्जयेत्।।*
होलिका दहन के लिए निर्णयसिन्धुकार आचार्य कमलाकर भट्ट ने ज्योतिर्निबन्ध का उद्धरण दिया है –
*प्रतिपद्भूत भद्रासु यार्चिता होलिका दिवा।*
*संवत्सरं च तद्राष्ट्रं पुरं दहति सा द्रुतम्।।*
अर्थात् प्रतिपदा में, चतुर्दशी में, भद्रा में और दिन में जो कोई होली जलाते हैं तो होलिका उस देश और उस नगर को वर्षदिन पर्यन्त शीघ्र जलाती रहती है विध्वंस करती है। होलिका दहन में उक्त चारों निषिद्ध हैं। भद्रा का मुख विशेष रूप से त्याज्य है।
विद्वज्जनों के लिए सर्वसुलभ *”धर्मसिन्धु”* के “होलिकानिर्णय” को समझना पर्याप्त है जो इस वर्ष शत प्रतिशत प्रभावी है-
*होलिका प्रदोष व्यापिनी भद्रारहिता ग्राह्या।*
अर्थात् होलिका दहन सायं भद्रारहित प्रदोष में ही स्वीकार्य है। इस बार प्रदोष में भद्रादोष है। भद्रा में भूलकर भी होलिका दाह न करें।आगे कहते हैं-
*प्रदोषे भद्रा सत्वे यदि पूर्णिमा परदिने सार्धत्रियामा ततोऽधिका वा तत् परदिने च प्रतिपद् वृद्धिगामिनी तथा परदिने प्रतिपदि प्रदोषव्यापिन्यां होलिका।*
*उक्त विषये यदि प्रतिपदो ह्रास: तदा पूर्वदिने, भद्रापुच्छे वा भद्रामुखमात्रं त्यक्त्वा भद्रायामेव होलिका दीपनम्।*
अर्थात् यदि पूर्णिमा के दिन प्रदोषकाल में भद्रा हो, दूसरे दिन पूर्णिमा साढ़े तीन प्रहर या उससे भी अधिक हो तथा प्रतिपदा वृद्धिगामिनी हो तो दूसरे दिन सायंकाल प्रदोषकाल में होलिका जलावें। (इस बार ऐसी स्थिति नहीं है।) आगे पं. काशीनाथ उपाध्याय लिखते हैं –
*उक्त स्थिति में यदि दूसरे दिन प्रतिपदा का ह्रास हो रहा हो अर्थात् प्रतिपदा तिथि का मान पूर्णिमा के मान से न्यून हो तो पहले दिन “भद्रापुच्छ” में होलिका दहन करें। अथवा भद्रापुच्छ भी नहीं मिले तो केवल भद्रा का मुख छोड़कर (शेष) भद्रा में ही होलिका दीपन करना चाहिए।*
मैं अनुरोध करना चाहूंगा कि यहां मुख्य पक्ष *भद्रापुच्छ* और *भद्रामुख* तो स्पष्ट है, परन्तु *भद्रायामेव* का अर्थ अधिकतम विद्वान् *प्रदोषकाल* कर रहे हैं जो दोषपूर्ण है। क्षमा करें, विद्वज्जन अपने अपने पंचांगों में *भद्रायामेव का प्रदोषकाल* त्रुटिपूर्ण अर्थ करके स्वयं भी भ्रमित हो रहे हैं और होलिका दहन प्रदोषकाल में लिख कर आस्थावान सनातनियों को भी भ्रमित कर रहे हैं। इसके मुख्यार्थ को कोई समझना ही नहीं चाहता या उनकी समझ से बाहर है।
मित्रों! स्थूल रूप से एक प्रहर में साढ़े सात घटी अर्थात् तीन घंटे होते हैं। इस वर्ष होली पर एक प्रहर का मान लगभग तीन घंटा बीस मिनट आ रहा है।
*यहां “भद्रायामेव” का अर्थ है कि पूर्णिमा के चतुर्थ प्रहर ( रात के 2 बजे से 5.20 तक ) की प्रारम्भिक पांच घटियां ( दो घंटे अर्थात् रात के 2 बजे से 4 बजे तक ) जो भद्रा मुख कहलाती हैं, उस भद्रामुख को छोड़कर शेष भद्राकाल में भी होलिका दहन किया जा सकता है न कि प्रदोषकाल में। अर्थात् भद्रापुच्छ नहीं मिल रहा हो या भद्रापुच्छ में नहीं कर सकें हों तो भद्रामुख को छोड़कर चतुर्थ प्रहर के शेष समय में रात्रि 4 बजे बाद से 5.15 बजे तक भी भद्रा में ही होलिका दहन कर सकते हैं।*
समझ में नहीं आ रहा है कि हम क्यों भद्रा से दूषित प्रदोष काल के पीछे पड़े हैं।क्यों भद्रा के अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं। किसी भी स्थिति में भद्रायुक्त प्रदोषकाल में होलिका दीपन श्रेष्ठ नहीं कहा गया है। कुछ विद्वान् लिख रहे हैं मध्य रात्रि के बाद होलिका दहन नहीं होता है। मैं पूछता हूं कि क्या जीवन में आपने दो बजे तीन बजे चार बजे होली नहीं मनाई इस वर्ष ही आपको क्या हो गया क्यों उपहास कर रहे हैं इन धर्म ग्रंथों का।
यहां धर्मसिन्धु की सातवीं पंक्ति ही देख लें-
*निशीथात् प्राक् भद्रा समाप्ति: तदा भद्रावसानोत्तरम्*
अर्थात् निशीथ से पहले भद्रा समाप्त हो जाए तो भद्रा के बाद होलिका दहन करें । ऐसी स्थिति अगले वर्ष आएगी तब भद्रायुक्त प्रदोषकाल के पक्षकार अगले वर्ष कैसे रात बारह एक बजे तक होली जलाएंगे।
आगे लिखते हैं –
*निशीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव।*
अर्थात् मध्यरात्रि के बाद भद्रा समाप्त हो रही हो तो भद्रामुख को छोड़कर भद्रा के शेष समय से जलावें न कि प्रदोष में। यहां ग्रन्थकार द्वारा निशीथ बाद भद्रा का सीमांकन नहीं किया गया है और न ही भद्रायुक्त प्रदोषकाल की आज्ञा दी है। यदि प्रदोषकाल शास्त्रीय होता तो ग्रन्थकार भद्रायामेव के स्थान पर प्रदोषैव लिखते।
अगला वाक्य देखिए-
*प्रदोषे भद्रामुखव्याप्ते भद्रोत्तरं प्रदोषोत्तरं वा…*
अर्थात् प्रदोषकाल में भद्रामुख आ जावे तो भद्रा के बाद या प्रदोषकाल के बाद जैसी भी स्थिति हो होलिका दहन करें। ऐसी स्थिति भी इस बार नहीं है। किसी भी ग्रन्थ में भद्रायुत् प्रदोषकाल को ग्रहण नहीं किया गया है।
और भी देखिए वर्षकृत्यदीपक के पृष्ठ 116 पर नीचे से चौथी पंक्ति में *भद्रामुखं वर्जयित्वा भद्रायामेव…* में भद्रायामेव पद को प्रदोषकाल ही ग्रहण करने वालों के लिए लिखा है-
*भद्रामुखमात्र परित्यागो न युक्त:, किन्तु पूर्वेद्यु: विष्टिपुच्छे होलिका कार्या।*
अर्थात् भद्रा में केवल मुखमात्र का ही परित्याग उचित नहीं है भद्रा पुच्छ को छोड़कर शेष भद्रा त्याज्य है। ऐसी स्थिति में पहले दिन ही भद्रापुच्छ में ही होलिका दहन करें।
और विष्टिपुच्छ की प्रशंसा में आचार्य लल्ल का वचन उद्धरित किया है –
*पृथिव्यां यानि कार्याणि शुभानि त्वशुभानि च।*
*तानि सर्वाणि सिध्यन्ति विष्टिपुच्छे न संशय:।।*
अर्थात् धरती पर जो भी शुभाशुभ कार्य हैं वे सब भद्रा पुच्छ में सफल सिद्ध होते हैं।
अब मुख्य विषय पर आते हैं- इस वर्ष भी पंचांगों में होलिका दहन के समय को लेकर बहुत सी विसंगतियां व्याप्त है जिससे सामान्य जनमानस भ्रमित और उद्वेलित है।
सभी पंचांगकार अपने अपने निर्णय को सटीक और शास्त्रीय कह रहे हैं। निर्णय कर्ताओं के अकाट्य समूह बन गए हैं। उनके समर्थक उन निर्णयों को पूरी शक्ति से प्रचारित भी कर रहे हैं।
यथा-
*प्रथम पक्ष-* पूर्वी भारत को छोड़कर राजस्थान सहित सम्पूर्ण भारत में होलिका दहन 6 मार्च को बता रहे हैं।
हां यह तो सत्य है कि शास्त्रों के अनुसार इस बार भारत में होली का पर्व छह मार्च का ही है। कोई पांच प्रतिशत से भी अल्प पूर्वी क्षेत्र को छोड़कर। राजकीय आदेश व अवकाश कुछ भी हों।
*द्वितीय पक्ष-* पूर्वी भारत में या यों कहें लखनऊ से पूर्वी क्षेत्र में 7 मार्च को सायंकाल पूर्णिमा स्पर्शमात्र होने पर भी सात को बता रहे हैं। साथ में मानचित्र भी दे रहे हैं।
दिल्ली आदि क्षेत्रों में सात को प्रदोष काल में पूर्णिमा नहीं होने पर भी 7 मार्च को होलिका दहन लिख रहे हैं।
निर्णयकर्ता धर्मशास्त्रों का मूल भाव न समझने के कारण भ्रमित कर रहे हैं। अब अपने निर्णयों के पालनार्थ और संरक्षणार्थ प्रयासरत हैं।
*सात की होली कहीं नहीं रहेगी क्योंकि सात मार्च को प्रदोष काल में एकदेश व्यापिनी पूर्णिमा नहीं है। धर्म सिन्धु वचन दृष्टव्य है-*
*दिनद्वये प्रदोषव्याप्तौ परदिने प्रदोषैकदेशव्याप्तौ वा परैव*
अर्थात् दोनों दिन 6 मार्च और 7 मार्च को पूर्ण प्रदोष काल (144 मिनट तक) में पूर्णिमा हो या सात मार्च को प्रदोष काल एकदेश व्यापी हो अर्थात् सूर्यास्त के बाद पूर्णिमा प्रदोषार्ध (72 मिनट तक) तक हो तो ही दूसरे दिन सात मार्च को सायाह्न होलिका दहन होगा। अन्यथा नहीं। सूर्यास्त के बाद लगभग सवा घंटा कर्मकाल व्यापिनी पूर्णिमा होना आवश्यक है यही सवा घंटा *प्रदोषैकदेश* कहलाता है। जहां आधे प्रदोष से भी न्यून पूर्णिमा है वहां छह की रात भद्रा पुच्छ में होलिका दहन करना चाहिए।
ऐसी स्थिति में तो सुदूर अरुणाचल प्रदेश मेघालय आदि में ही सात मार्च की होली सम्भव होगी। भारत के किसी भी क्षेत्र में जहां सूर्यास्त के बाद तीन घटी (72 मिनट ) तक पूर्णिमा है वहां पर ही सात मार्च की होली शास्त्रानुकूल है। क्योंकि कर्मकाल व्यापिनी तिथि तो प्रदोष काल में होनी ही चाहिए। अन्य स्थानों पर छह मार्च को मध्यरात्रि पुच्छ काल में ही होलिका दहन शास्त्र सम्मत है।
क्षमा करें हम भी शास्त्रानुशीलन के पक्षपाती हैं। लेश मात्र भी किसी पंचांग से हमारा कोई राग द्वेष नहीं है। सभी पंचांग और पंचांग निर्माणकर्ता हमारे लिए परम श्रद्धेय हैं, क्योंकि वे वर्ष पर्यन्त कठिन परिश्रम करके पंचांगों की संयोजना करते हैं। अनेकों निर्णयों में सही तो एक ही है अतः मन्थन कर समुचित निर्णय करना हम सबका दायित्व है।
*6 मार्च को भी होलिका दहन के तीन पक्ष सामने आ रहे हैं-*
प्रथम पक्ष – कुछ पंचांग सायंकाल भद्रायुक्त प्रदोषकाल में लिख रहे हैं। और अपने समर्थन में कई वचन दे रहे हैं जो पूर्णतया दोषयुक्त है-
*निशाथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव…*
धर्मसिन्धु के इस वचन की स्पष्ट व्याख्या पूर्व में मैंने कर दी है। केवल समझने का फेर है। इस वचन में में प्रदोष ग्रहण करना अल्पज्ञता है। भद्रा में होलिका दहन और रक्षाबंधन निषेध है। कुछ प्रचलित प्रदोष के स्तुतिगानों के साथ निबन्धाभास का वचन कहते हैं-
*भद्रायां विहितं कार्यं होलिकाया: प्रपूजनम्।* पाठान्तर- होलायाश्च प्रपूजनम्।
वीरमित्रोदय का समयप्रकाश पृष्ठ 101 इसे निन्दित कहता है *इति निबन्धाभासवचनं हेयम्।*
प्रदोषकाल के पक्षपाती निशीथ के बाद होलिका दहन निषिद्ध कह रहे हैं –
*मध्यरात्रमतिक्रम्य विष्टे: पुच्छं यदा भवेत्।*
*प्रदोषे ज्वालयेद्वह्निं सुखसौभाग्यदायकम्।।*
इस उद्धरण को भी समयप्रकाशकार ने पृष्ठ 101 पर निर्मूल कह कर नकार दिया है – *इत्यादि वाक्यानि तानि निर्मूलानि।* अर्थात् भद्रापुच्छ मध्य रात्रि के बाद भी हो तो भद्रा पुच्छ में होली मनाई जा सकती है।
जयसिंह कल्पद्रुमकार पौण्डरीक जी महाराज ने उक्त श्लोक के साथ एक पंक्ति और जोड़ते हुए पृष्ठ 772 पंक्ति 10 पर लिखा है कि ये सब वचन अमान्य हैं अकरणीय हैं-
……
*प्रदोषान्मध्यरात्रान्तं होलिका पूजनं शुभम्। इति तदनाकरम्।*
आचार्य श्रीनीलकंठभट्ट ने भी भगवन्तभास्कर के समयमयूख पृष्ठ 115 पर मध्यरात्रि बाद का समर्थन किया है। और उक्त तीनों पंक्तियों को नकार दिया है-
*इति च कैश्चित् अलेखि तदनाकरम्।*
और भी देखिए पुरुषार्थ चिन्तामणि पृष्ठ 310 पर ज्योतिर्निबन्ध से महर्षि नारद के वचनों को उद्धृत किया है-
*होलिका शान्तिकं कर्म जनारोग्योत्सवाय च।*
*त्यक्त्वा भद्रां निशीथेऽपि ज्वाल्पा भद्रादिदाहकृत्।।*
अर्थात् होली शान्ति कर्म है जो लोगों की अरोगता और प्रसन्नता के लिए मनाया जाता है। अतः निशीथ में भी होलिका दहन किया जा सकता है। इसीलिए कोई भी ग्रह शांति या गृह शांति अनुष्ठान निशीथ में करने का कोई दोष नहीं है। और जो निशीथ की आपत्ति करते हैं वे सब व्यर्थ हैं। कहते हैं –
*यदा तु निशीथादूर्ध्वं भद्रा समाप्ति: तदनुष्ठाने नारदवाक्ये निशीथेपीत्यस्य वैयर्थापत्ते:।*
प्रदोष तो भद्रा रहित ही ग्राह्य है या तो पहले दिन शुद्ध पूर्णिमा हो या दूसरे दिन सार्धत्रियामा पूर्णिमा के साथ वृद्ध्यर्थक स्थिति में प्रतिपदा हो या सायं प्रदोष में पूर्णिमा हो।
इस संदर्भ में ध्यान से देखिए स्पष्ट लिखा है-
……
*यदा निशीथान्तरं भद्रासमाप्तिस्तदा भद्रामुखोत्तरं भद्रायामपि प्रदोषे एव।*
कुछ विद्वान् प्रदोष के स्थान पर गोधूलि बेला में कह रहे हैं। पता नहीं कहां से लाए हैं गोधूलि बेला में होलिका दहन की व्यवस्था। गोधूलि लग्न विवाहादि में तो लीन है पर होलिका दहन में नहीं। मुहूर्तचिन्तामणि के विवाह प्रकरण श्लोक संख्या 99 से 101 पर इन्हें दृष्टिपात करना चाहिए। और पीयूषधार में भी स्पष्ट है-
*लग्नशुद्धिर्यदा नास्ति कन्या यौवनशालिनी।*
*तदा वै सर्ववर्णानां लग्नं गोधूलिकं शुभम्।।*
जबकि फाल्गुन मास में तो गोधूलि लग्न सूर्यास्त से पहले ही प्रारम्भ हो जाता है। और अल्पावधि गोधूलिकाल में होलिका दीपन सम्भव भी नहीं है।
आजकल के विशिष्ट विद्वान् तो शुभ चौघड़िया, शुभ लग्न, विशेष योगायोग और कहने लगे हैं। कहते हैं ऐसा योग तो सैकड़ों वर्षों से आया हैं। जबकि ऐसे विद्वान् नक्षत्रसूची भी नहीं हैं।
*अतः एक भी शास्त्रीय वचन 6 मार्च को सायंकाल होलिका दहन के पक्ष में नहीं है। फिर ही कोई मनाता है तो स्वतंत्र है। आगे हरीच्छा।*
द्वितीय पक्ष- 6 मार्च की रात भद्रोत्तर काल में। इसके पक्षकार लिखते हैं कि
*दिनार्धात् परतोऽपि स्यात् फाल्गुनी पूर्णिमा यदि।*
*रात्रौ भद्रावसाने तु होलिकां तत्र दीपयेत्।।*
सभी शास्त्र मुक्त कंठ से भद्रा के उपरान्त होलिका दहन के पक्ष में हैं। यदि भद्रोत्तर में कर्मकाल व्यापिनी तिथि मिलती तो मैं भी भद्रोत्तर के पक्ष में होता। इस दिन जयपुर में 56 घटी तक भद्रा है। भद्रा के बाद तीन घटी का मुख्य समय प्रदोषार्धमान के समान होना अनिवार्य है। अतः तीन घटी जोड़ने पर 56 से 59 घटी शुद्ध पूर्णिमा में होलिका दहन करना पड़ेगा, जो उषाकाल, अरुणोदय काल, प्रातः काल एवं सूर्योदय काल को अतिक्रांत कर रहा होगा। जो पूर्णतः शास्त्र विरुद्ध है। कहा है-
*पंचपंच उष:काल: सप्तपंचारुणोदय:।*
*अष्टपंच भवेत् प्रातः शेष: सूर्योदय: स्मृत:।।*
प्रदोषो रजनीमुखं की भांति प्रत्यूषे अहर्मुखम् इसीलिए अमरकोशकार ने लिखा होगा।
*कालकर्मस्पर्शे गौणकालग्रहणे… होला कार्या।* अतः भद्रोत्तर में कालकर्म व्यापिनी स्थिति नहीं होने एवं सामयिक ब्रह्ममुहूर्त की नित्य क्रिया प्रारम्भ हो जाने तथा रात्रि के तीसरे प्रहर में ही सर्वथा शुद्ध भद्रापुच्छ मुख्यकाल मिलने पर 56 घटी बाद वाला भद्रोत्तर गौणकाल क्यों कर ग्रहण करें।
तृतीयपक्ष- भद्रापुच्छ जो सर्वथा शुद्ध है जिसे सभी निर्णय ग्रन्थ इस बार स्वीकार कर रहे हैं। सर्व सुलभ धर्मसिंधु जिसे प्रथम पंक्ति में रखकर सारे निर्णयों का मूर्धन्य बना रहा है तो हमें किसी भी प्रकार की शास्त्रीय शंका नहीं करनी चाहिए।
*पंचांगों की ऐसी वैमत्य स्थिति में शास्त्रों के प्रमाण और ऋषि वाक्य ही मार्गदर्शक व संकटमोचक हो सकते हैं, न कि गांवों की चौपाल पर बैठकर लोकतांत्रिक बहुमत व्यवस्थाओ को अपनाना। और उस बहुमत के पक्ष में गुटबाजी करना। फिर इन धर्म ग्रंथों का क्या औचित्य है।*
जब दूसरे दिन पूर्णिमा साढ़े तीन प्रहर से अधिक है और प्रतिपदा ह्रास गामिनी है तो भद्रा पुच्छ काल में होलिका दहन क्यों नहीं करना चाहिए? हम ऐसे ऋषि वाक्यों को कब ग्रहण करेंगे। यदि इन वचनों को काल कवलित मानते हैं तो क्यों नहीं सदैव के लिए प्रदोष काल में होलिका दहन मत स्थापित कर देते हैं।
हम सब के लिए शास्त्रावगाहन सम्भव नहीं है तो विगत वर्षों के अनुभव व पंचांगों के निर्णय भी तो विचारणीय हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में अधिकतम पंचांग भद्रापुच्छ काल को ही स्वीकार करते आए है। पंचांग, अनुभव और आप्तवचन प्रमाण तो हैं पर शास्त्रीय पक्ष भी हमारे लिए अनुसंधेय होना चाहिए। जो पंचांगों ने लिख दिया उसे ही प्रमाण मान लें, या जिस पंचांग में हमारी आस्था है उसके निर्णय को ही मान लें। कहीं आस्था विश्वास में निर्मूल वचन हमारे लिए पीड़ादायक न बन जाएं यह भी चिन्तन करना चाहिए। हम अन्धानुकरण तो करें पर स्वेच्छाचारिता पूर्ण निर्णय क्षेत्र और राष्ट्र के हित में नहीं होते हैं इसका भी ध्यान रखें।
भद्रा को पुरुषाकार मानते हुए धर्मशास्त्रकारों ने भद्रा के अंग-प्रत्यंग मुख-पुच्छ निर्धारित किये हैं। विशेष परिस्थितियों में भद्रा पुच्छ को ही होलिका दहन में शुभ माना गया है। इस वर्ष की विषम परिस्थितियों में शास्त्रों का मत है कि होलिका दहन भद्रा पुच्छ काल में ही कल्याणकारी है।
*विष्टि करण (भद्रा) के मान को त्रैराशिक विधि से चार भागों (प्रहरों) में विभाजित कर तीसरे प्रहर की अन्तिम तीन घटी भद्रा पुच्छ और चौथे प्रहर के प्रारम्भ की पांच घटी भद्रा मुख कहलाती हैं।*
*विष्टि नाम के करण को ही भद्रा कहते हैं। सात चर और चार स्थिर करण होते हैं। एक तिथि में दो करण होते हैं, तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। एक चान्द्रमास की आठ तिथियों में भद्रा (विष्टि करण) होती है। प्रत्येक पूर्णिमा का प्रारम्भ भद्रा काल से ही होता है इसीलिए होली रक्षाबंधन और होली के प्रारंभ में भद्रा रहती ही है। स्थूल रूप से बारह घंटे का भद्रा काल होता है जिसमें शुभ कार्य पूर्णतया वर्जित हैं। शास्त्र कारों ने विवाहादि सामान्य मुहूर्तों में भद्रा दोष के अनेकों परिहार वाक्य भी लिखे हैं। जो रक्षाबंधन और होली पर लागू नहीं होते हैं।*
*भद्रामुख काल पांच घटियों का अशुभ और भद्रापुच्छ काल तीन घटियों का शुभ कहा गया है। आठों तिथियों के अलग अलग प्रहरों में भद्रा मुख-पुच्छ संहिता ग्रन्थों में अभिहित हैं।*
इस वर्ष नल/ अनल नामक संवत्सर में होलिका दहन के समय सोमवार, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, सिंह राशि का चन्द्रमा, धृतियोग और बवकरण रहने से आने वाला मास राष्ट्र के सम्मान की अभिवृद्धि करने वाला सुभिक्षकारक और जनता के लिए समर्घता (सस्ताई) देने वाला रहेगा।
*विशेष अनुरोध वर्षों पहले भी हम लोगों ने मध्य रात बाद तीन चार बजे तक होली मनाई है उस समय क्या हमारे पूर्वज विद्वान् नहीं थे। वे शास्त्र पारंगत थे उन्होंने कभी भी भद्रा में होलिका दहन नहीं किया। यदि रात में भद्रा रही तो भद्रा पुच्छ काल में होलिका दहन किया।*
*अतः इस बार अपने अपने क्षेत्र के मान्यता प्राप्त पंचांग के अनुसार रात को बारह एक बजे के जब भी भद्रापुच्छ आ जावे उसके बाद ही कर्मकाल व्यापिनी तीन घटी तक कभी भी होलिका दहन करें।*
स्वकीय राष्ट्र के रक्षार्थ भद्रा में कदापि होलिका दहन न करें। भद्रा में होलिका दहन करने से राष्ट्र में अनेकों संकट उत्पन्न होते हैं राजकीय उच्चाधिकारियों एवं सम्पन्न सम्मानित वर्ग को कष्ट होता है। अतः भद्रापुच्छकाल या भद्रा शुन्य काल में ही होलिका दहन करें। उक्तं च…
*भद्रायां दीपिता होली राष्ट्रभङ्गं करोति वै।*
*भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।*
*भद्राशून्यायां होलिकादाह:।*

*प्रदोषकाल परिमाण -*
कुछ सूर्यास्त से तीन घटी प्रदोष कहते हैं। कुछ विद्वान् सूर्यास्त के बाद छह घटी अर्थात् तीन मुहूर्त तक प्रदोष काल कहते हैं। कुछ सूर्यास्त से पूर्वापर कहते हैं तो कुछ संध्या और प्रदोषकाल समान ही मानते हैं-
*प्रदोष: संध्या च दिनरात्र्यो: संधौ मुहूर्त:।*
हेमाद्रौ स्कन्दपुराणोक्ति-
*उदयात् प्राक्तनी सन्ध्या घटिकात्रयमुच्यते।*
*सायं सन्ध्या त्रिघटिका अस्तादुपरि भानुत:।*(भास्वत:)
*त्रिमुहूर्त: प्रदोष: स्याद्रवावस्तं गते सति।*
पुरुषार्थचिन्तामणौ कालमाधव से विष्णुधर्मोत्तरपुराणोक्ति-
*त्रिमुहूर्त: प्रदोष: स्याद्भानावस्तंगते सति।*
*नक्तं तु तत्र कुर्वीत इति शास्त्रस्य निश्चय:।* इति
*प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिकात्रयमिष्यते।* इति
हेमाद्रिमाधवयोर्वचनान्तरं तत्प्राशस्त्यपरम्।
हेमाद्रि कालमाधव में विरोधाभास है –
*हेमाद्रिणा माधवस्य विरोधकालनिर्णये।*
हेमाद्रौ विश्वादर्शोक्ति-
*प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिकात्रयमुच्यते।*
निर्णयसिन्धु में मदनरत्न की व्यासोक्ति है-
*त्रिमुहूर्तं प्रदोष: स्याद्भानावस्तंगते सति।*
*नक्तं तत्र प्रकर्तव्यमिति शास्त्रविनिश्चय:।।*
इन्होंने यहां *प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिका त्रयमिष्यते।* को छोड़ दिया है।
गौडास्तु-
*प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिकाद्वयमिष्यते।*
सर्वार्थ चिन्तामणौ आकांक्षायाम्-
*अस्तमानं समारभ्य सार्धा सप्त च नाडिका।*
*प्रदोष इति विख्यातस्त्वर्धयाममत: शृणु।।*
अर्थात् *यामार्ध परिमित एव प्रदोषकाल:*
जयसिंहकल्पद्रुमे वत्सोक्ति-
*प्रदोष: सन्ध्या च दिनरात्र्यो: संधौ मुहूर्त:।*
मेरी दृष्टि में सारयुक्त बात यही है कि सूर्यास्त के बाद की छह घटी प्रदोष काल हैं न कि तीन घटी। और इसी प्रदोष काल का एकदेश काल प्रदोषार्ध तीन घटी है न कि स्पर्श मात्र काल थोड़ा सा भी।
संध्या प्रदोष काल में वर्जना-
*चत्वारीमानि कर्माणि संध्यायां परिवर्जयेत्।*
*आहारं मैथुनं निद्रां स्वाध्यायं च चतुर्थकम्।।*
अमरसिंहोक्ति-
*प्रदोषो रजनीमुखम् (निशामुखम्)*
यहां हेमाद्रि लिखते हैं –
*तच्च रजनीमुख शब्देन मुहूर्त त्रयमुच्यते पूर्ववाक्यानुसारात् अनेकार्थत्वस्यान्याय्यत्वाच्च।*
निशीथ परिमाण-
*महानिशि द्वे घटिके रात्रेर्मध्यमयामयो:।*
*तथा च द्वितीयप्रहररात्रिशेषदण्ड: तृतीयप्रहररात्रिप्रथमदण्ड इति घटीद्वय निशीथ इति भाव:।*

होलिका दाह के समय वायु प्रवाह से भी विशेष फल शास्त्रों में कहे हैं।…
*पूर्वे वायौ होलिकायां प्रजाभूपालयो: सुखम्।…*
*अर्थात् अपने अपने नगर में होलिका दहन के समय यदि पूरब की ओर हवा का प्रवाह अर्थात् होली की झऴ (लौ) पूर्वी हो तो उस नगर के राजा और प्रजा दोनों सुखी रहते हैं। दक्षिण की ओर रुख हो तो नगर में दुर्भिक्ष और पलायन होता है। पश्चिम की ओर रुख हो तो पशुओं के लिए अच्छा हो। उत्तर की ओर हो तो अन्न धन की अधिकता हो। ईशान कोण की ओर रुख हो तो अनावृष्टि हो। अग्नि कोण की ओर रुख हो तो रोग फैलें। नैर्ऋत्य कोण की ओर रुख हो तो अतिवृष्टि हो। वायव्य कोण की ओर रुख हो तो प्राकृतिक आपदाओं की भरमार हो और सीधे ऊपर की ओर झऴ जाए तो राजा उच्च वर्ग और सम्पन्न लोगों को कष्ट होता है।*
होलिका मन्वादि तिथि है इसे होला होलाका होली हुताशनी फाल्गुनी वसन्तोत्सव दाण्डपाता होलिकोत्सव आदि नामों से जाना जाता है। यह तिथि अक्षय पुण्य की दाता है-
*कार्तिकी फाल्गुनी चैत्री ज्येष्ठी पंचदशी तथा।*…..
*सर्वमेवाक्षयं विन्द्यात् कृतं मन्वन्तरादिषु।।*
हेमाद्रि में लिङ्गपुराण का वचन-
*फाल्गुने पौर्णमासी च सदा बाल विलासिनी।*
*ज्ञेया फाल्गुनिका सा च ज्ञेया लोकविभूतये।।*
और वाराहपुराण का वचन भी देखिए –
*फाल्गुने पौर्णमास्यां तु पटवासविलासिनी।*
*ज्ञेया सा फाल्गुनी लोके कार्या लोकसमृद्धये।।*
*पं. कौशल दत्त शर्मा*

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